दराटी पहाड़ी बोली का शब्द है जो की हिंदी के दराती से तोड़ मरोड़ के बनाया गया है। इस पास को ऊपर से देखने पे, अंतिम कुछ १०० मीटर एकदम दराती सा आभास देते हैं, इसलिए नाम ‘दराटी पास’।
चम्बा से सम्भवतः 100-120 किलोमीटर दूर एक गाँव है, दंतुइ बस वहीँ से इस पास की यात्रा शुरू होती है।

हालत ऐसे थे की जीप नंबर एक से जीप नंबर दो तक जाने तक हम अपने ट्रेक नेता – पंडित जी- के जूते, जुराब खो चुके थे। जूते जुराब को छत पे चढ़ाने की जिम्मेदारी ‘शायद’ मेरी थी इसलिए दंतुइ पहुँचते ही मुझे सवालियां निगाहों से छेद दिया गया ।
पहाड़ी बोली में एक शब्द का प्रयोग किया जाता है ‘मकरा‘: मकरा वो इंसान है जो जानबूझ के सुने को अनसुना कर दे या अपनी जिम्मेदारी से भागे या सरकारी आदमी हो । सरकारी आदमी ‘मकरे‘ भर्ती नहीं होते लेकिन सरकारी तंत्र में रह कर अक्सर मकरे हो जाया करते हैं। और आप अगर आंकड़ों की ओर देखें तो पाएंगे हिमाचल में जनसख्यां प्रतिशत के हिसाब से सर्वाधिक सरकारी कर्मचारी हैं, इसलिए मकरे हो जाने की ट्रेनिंग हमें घर-स्कूल-दफ्तर से किसी न किसी तरह से मिलती रहती है।
तो जूते खोते ही मैं मकरा हो गया, वही हाल रिजुल का भी था। आप 4700 मीटर ऊँचे पास पे जा रहे हों और जूते खो जाएँ तो दिमाग खराब होना स्वभाविक है, लेकिन पंडित जी की प्रोडक्शन किसी और ही युग में हुई थी, तो उन्होंने फरमान जारी कर दिया की जाएंगे तो जरूर , इस बार देसी गद्दी स्टाइल में चल चलेंगे।
खुंडी मराल मंदिर में पंडित जी और रिजुल द्वारा धुप बत्ती की गयी और भगवती की कृपा से मंदिर के सामने वाले घर में ही हमारे खाने, रहने और ‘मनोरंजन’ का भी जुगाड़ हो गया। मंदिर में टांकरी लिपि में शिलालेख हैं दरअसल, चम्बा जिले में टांकरी अभी भी किलों और मंदिरों में देखा जा सकता है।
पहाड़ों के दूर दराज के गाँवों में शाम = शराब, तो अपने मकान मालिक भी नशे में ‘फील’ ले गए और छोटा भाई बड़े भाई से लड़ पड़ा। लड़ते लड़ते उसने दो हाथ अपनी माँ पे धर दिए, एक चोकस्लैम अपने भाई को दे दिया। वे प्रशिक्षित WWE पेशेवरों की तरह एक दूसरे पर हमले कर रहे थे और एक-दूसरे को चोकस्लैम करना चाहते थे। हालांकि यह मनोरंजन मुफ्त होने पर भी हमने इसका आनंद नहीं उठाया। और घंटों चली लड़ाई के बाद अंततः बड़े भाई की जीत हुई। रेफरी के रोल में निर्विवाद रूप से पंडित जी का चयन हुआ और उन्होंने इस मैच को ‘ड्रॉ’ करा के ही दम लिया। एक दो बॉडी स्लैम रेफरी के हिस्से में भी आये लेकिन रात जैसे तैसे शांतिपूर्ण तरीके से कट गयी।
जैसा कि अपेक्षित था, पूरी रात बारिश हुई जो सुबह तक जारी रही। दोनों भाइयों का झगड़ा सुबह भी हुआ। संक्षेप में बोलें तो रात बहुत बुरी गुजरी। बाहर काले बादल थे और ‘अंदर’ बिजली कड़क रही थी। वह व्यक्ति जो हमारे साथ ऊपर जाने को राजी हो गया था, उसने भी मना कर दिया।
चुराह चम्बा में गाइड मिलने की समस्या आदि काल से चली आ रही है, वही हमारे साथ भी हुआ। फसल के काम को छोड़ कर लोग पहाड़ों में गाइड पोर्टर बन कर जाना पसंद नहीं करते और इसीलिए हमें अँधेरे में तीर चलाना पड़ा। इस उम्मीद में की गद्दी जल्द ही लाहौल की राह पकड़ेंगे, हम कैंपसाइट (एक खुली चौड़ी गुफा) की ओर चल दिए।
कुल मिला कर तीन बार रास्ता भूल कर हम गुफा तक तो नहीं पहुंचे, लेकिन गुज्जर के कोठों तक पहुँच गए। वहां हमें एक रात रुकने का ठिकाना मिला और साथ में मिली चार से पांच क़्वींटल सलाह।
हमारे साथ चलो, हम तो रोज जाते हैं, यहाँ से लाहौल तो बाएं हाथ का खेल है से बहुत दूर है, हम नहीं चल सकते, 500 रुपया लगेगा – और सुबह होते होते – 1500 रूपया लगेगा, जान का खतरा है, एक बार तो यूँ लगा की ये हमें सम्मोहित करके यहीं भैंसो के साथ बाँध देंगे और हमारा भी दूध निकाल के लाहौल में बेचा करेंगे|
पूरे दिन, पूरी रात के बाद बारिश अगले दिन भी जारी रही। गुफा करीब ही थी लेकिन हमें बताया गया कि बरसात में गुफा के लिए प्रस्थान करना ठीक नहीं था। शाम होते-होते हम सब उम्मीद छोड़ने लगे तभी एक परिचित ध्वनि कानों में पड़ी। यह ध्वनि और किसी की नहीं बल्कि गद्दी की सीटी की मीठी ध्वनि थी। आखिरकार हमारे अभिभावक स्वर्गदूत आ गए थे, उन्होंने मराल खुंडी मंदिर से जोत लांघने की दैवीय अनुमति ली जिसे पहाड़ी में लंघा( permission to cross the pass) कहा जाता है। फिर क्या था हम भी चल दिए उनके नक्शेकदम पर। और 45 मिनट की तीव्र चाल के बाद गुफा तक पहुंच गए।
लाहौल एवं चुराह के गद्दी इसे लहेश नहीं बल्कि एल्यास कहते हैं। वहीं गधेरन अर्थात कांगड़ा और चंबा के गद्दी इन्हें लाहेश बोलते हैं। चम्बा से लेकर पीर पंजाल पर लाहौल जाने वाले को लाहौलेसि कहा जाता है।
देखते ही देखते बारिश शुरू हो गई कुछ ही देर में शांत सी जगह शोर शराबे वाली जगह में बदल गई। हालांकि हम सब सब पास ही खड़े थे लेकिन शोर इतना था कि हमें एक दूसरे से बात करने के लिए भी तेज बोलना पड़ रहा था। देखते ही देखते पानी कच्छों तक आ गया, भेड़ें पानी में समा गयी और अफरा तफरी के माहौल में गदर मच गया| जो गुफा अब तक कुदरत का करिश्मा टाइप फीलिंग दे रही थी, वो एकदम से जल समाधि सी दिख रही थी |
लेकिन इस सब के बीच, अपने गद्दी भाई हमसे टोर्च उधार मांग कर पानी में कूद चुके थे, फसी हुई भेड़ों को बचाने के लिए और एक दो घंटे तक चले रंगारंग कार्यक्रम में एक भी भेड़ या बकरी पानी में बहने नहीं दी गयी। ठंडे पानी में, रात के अँधेरे में, उफनते नाले में, अपनी जान की परवाह किये बिना ये जांबाज गद्दी अपने सब जानवरों को बचा लाये, इससे हमारी भी हिम्मत बंध गयी की अपन बह गए तो हमें भी ये लोग बचा लाएंगे|
फिर आयी रात, गहरी-लम्बी-काली और बहुत ही ठंडी रात| एक ठंडी रात हमने काटी थी बिलासपुर बस अड्डे पे , जनवरी में जहाँ बसों के टायर जला के हमने खुद को गर्म रखा था, लेकिन यहाँ न तो बसें थी, और न ही टायर | एक मैला कुचला सा तिरपाल था और उसके अंदर थे 7-8 लोग, भीगे हुए, उकड़ूँ बैठे हुए सुबह की प्रतीक्षा में| एक और से तिरपाल खिंचता तो दूसरी तरफ से चार लोगों का पिछवाड़ा हवादार हो जाता|
हवा चलती रही, और शरीर अकड़ता रहा और इसी बीच यही मंत्रणा चलती रही की आगे जाना है या नहीं जाना है। मैं आधी नींद में सुनता रहा, अपना पक्ष रखने के लिए हूँ हाँ और ठंड से ‘पूं’ भी बीच बीच में करता रहा। सुबह होते ही तिरपाल से बाहर निकल कर मैं वापसी की और मुड़ा लेकिन गद्दी ठहरे शम्भू, हेड गद्दी ने फरमान सुना दिया ” एक बार खुंडी मराल का लंघा मिल गया तो मिल गया, अब हम सिर्फ आगे जाएंगे”





‘व्हाट दी फक’ जैसे एक्सप्रेशन देते हुए मैंने पंडित जी को और देखा और अब ‘मकरा’ बनने की बारी उनकी थी । चलते चलते अब हिम्मत बनती गयी, जय भद्रकाली के उद्धोष के साथ सब लुटे पिटे यात्री 3800 से 4700 मीटर की ओर चल दिए| हेड गद्दी एक अच्छे ट्रेक लीडर की तरह कटी हुई पहाड़ी में रस्ता बनाता हुआ चल रहा था और मैं उसके पाँव की तरफ देख के अचम्भित हो रहा था|
कभी गुलाम अली को गाते हुए सुनें, तो उनकी आवाज़ और हारमोनियम की आवाज़ में फर्क करना मुश्किल हो जाता है। बिलकुल वैसे ही भेड़ और हेड गद्दी की चाल में फर्क करना मुश्किल हो रहा था, दोनों एक समान खड़े पहाड़ पे बिना थके चढ़ते चले जा रहे थे। जैसे भेड़ और गद्दी में कोई फर्क ही न रह गया हो|
पास के टॉप पे पहुँचते पहुँचते शायद तीन बजे गए और थकान से शरीर केजरीवाल हो चुका था अर्थात बिखर के बावला हो चुका था। लेकिन दूसरी तरफ लाहौल का नजारा देखते ही माहौल रंगारंग हो गया। पीर पंजाल के सभी पास की ख़ास बात है ये की लाहौल की तरफ पथरीला रास्ता बहुत ही लम्बा चला जाता है। इतना लम्बा की टिंडी पहुँचते पहुँचते रात के नौ बज गए।
अब लाहौल या चम्बा के गाँव में घर ढूँढना उतना भी मुश्किल काम नहीं है। किसी भी घर में चले जाओ और वो आपका ट्रैकिंग बैग देख कर ही आपको खुद रहना खाना ऑफर कर देंगे । हम लोग किस्मत से मेरे स्कूल के मित्र राजीव के घर पहुंचे और इस तरह दराटी पास यात्रा सम्पन्न हुई



ये मेरे पुराने यात्रा वृतांतों को अंग्रेजी में बदलने की पहली कड़ी है । हर रविवार, एक पुराना यात्रा वृन्तान्त हिंदी में प्रकाषित किया जाएगा। इस यात्रा वृतांत का अनुवाद करने के लिए मैं शिवम वर्मा का आभारी हूँ
इस यात्रा वृत्तांत को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें: Darati Pass Yatra
मजा आ गया तरुण भाई पढ़ कर. यात्रा वृन्तान्त हिंदी में प्रकाषित करने की यह पहल मेरे जैसे हिंदीभाषी के लिए सौभाग्य की बात है . शुभकामनाएं
हिन्दी में पढना अच्छा लगता है।
इंग्लिश में वो फिलिंग बोले तो अहसास नहीं आता।
हिन्दी में सभी लेख पढने आऊँगा।
एक शब्द उचित नहीं लग रहा है। आपने भेड बचाओ अभियान को रंगारंग कार्यक्रम नाम दिया है।
हो सके तो भाई रंगारंग शब्द की जगह दूसरा शब्द कर दीजिए क्योंकि जीवन बचाने की प्रक्रिया कभी रंगारंग नहीं होती, रंगारंग तो मौज मस्ती, नाच गाना ही हो सकता है। आगे आपकी इच्छा। सलाह बुरी लगी हो तो अनदेखी कर दीजिएगा।
वाह लाजवाब तरुण भाई मंडयाली में बोले ता (नन्द लायीती तैं मजा आयी गया हिंदी भीतर पढ़ी के)
कुछ शब्दावली में को बदलने की जरूरत जान पड़ रही है फिर भी एक शुरुआत तो हुई है धीरे -धीरे सब ठीक हो जाएगा।
मजा आ गया वृतान्त पढ़के।
वाह….गुरुजी मजा आ गया पढ कर।आपकी हिंदी वाली पोस्ट पहले भी पढी हैं पर ये शायद पहली पोस्ट है जो ट्रैकिंग पर है।
हिंदी में पढ़ कर अच्छा लगा। धन्यवाद्
हिंदी का ज़हर घोल दिया है मन में । बहुत बढ़िया और शानदार….
बहुत बढ़िया पड़कर आनंद आ गया
Ap ne to puri Yatra ko Kafi enjoy bhi kiya or Kathin bhi batya. bakey m drati pass Kafi enjoyfull h.. Mane to Kafi bar cross keya h. Ager agli bar jab Kabhi ane ka plan Ho to mujhe batana mere ghar bhi yhi najdeek h my no 8544758619 m app ko free of cost cross Kara dunga
बहुत ही शानदार यात्रा का वर्णन किया है जनाब। बस मन कर रहा निकल जाऊ इस यात्रा पे। पर कोन है जो मेरे साथ चलना चाहता है
आपकी यात्राए गजब की हैं लेकिन थोड़ी बड़ी और साथ ही फोटो ज्यादा होती तो ज्यादा मजा आता