हम अब यात्रा के आखिरी पड़ाव में आ चुके थे, जहाँ शरीर छोटी-बड़ी सब तरह कि बसों में धक्के खा खा के थक चुका था, लेकिन अंतर्मन अभी तक तृप्त नहीं हुआ था | चित्रकोट से निकले तो अगला पड़ाव था भोरमदेव का शिव मंदिर जिसे अक्सर छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कह दिया जाता है | भोरम एक वनवासी देवता था जो शिव भक्त था, उसीके नाम पे भोरमदेव का मंदिर है |
1- पढ़ें अमरकंटक एक्सप्रेस | 2- पढ़ें भेड़ाघाट धुआंधार फाल्स | 3 – पढ़ें सतपुड़ा के जंगलों से के गढ़ बस्तर तक | 4 – पढ़ें मंदिरों और तालाबों का शहर – बारसुर | 5 पढ़ें – चित्रकोट फाल्स , बस्तर के जंगलों में

भोरमदेव मंदिर छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह के गृहनगर कवर्धा (कबीरधाम) में स्थित है | और जब बात कबीर की हो, तो हवा में वैसे ही भक्ति आ जाती है | कवर्धा में कबीरपंथियों की बहुतायत है | चित्रकोट से लेकर कवर्धा तक हर जगह एक ऊंची सी मीनार और एक एक सफ़ेद चादर में लिपटा हुआ चबूतरा सा दिख जाता था | पूछताछ की तो पता चला की यही कबीर हैं, यही कबीर का सार है, और यही कबीर की भक्ति |
जिन लोगों को न मालूम हो, और आजकल कम ही लोगो को पता होता है, ये कबीर वही ‘ओ कबीरा मान जा’ वाले गाने का कबीरा है | संत कबीर – भक्ति रस के रॉक-स्टार |
कवर्धा एक छोटी सी दिल्ली है, सुलझी हुई, सुन्दर सी | वहाँ पिज़्ज़ा – समोसा की जगह पोहा- जलेबी चलता हैं , सुबह-शाम-दिन-रात, नॉन स्टॉप | सड़कें साफ़, हवा साफ़, लोग शकल के काले से लेकिन दिल के एकदम साफ़
कवर्धा से 17 किलोमीटर दूर है भोरमदेव का मंदिर जहाँ के लिए बस चलती है दोपहर में और अपनी गाडी करनी हो तो 400 – 500 रुपये निकालने पड़ जाते हैं | वैसे तो 400 रुपये एक साथ निकालना हम जैसे घुमंतुओं के लिए मुसीबत का काम है, पर जब बात समय बचाने की हो तो कभी कभी ऐसा करना पड़ जाता है |
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एक सस्ता सा होटल लेकर रात गुजारी गयी और अगली सुबह, पोहा जलेबी का भोग लगा कर , सुबह ही वनवासी – शिव से मिलने हम लोग निकल गए | आपको एक पल के लिए भी नहीं लगेगा की आप एक घने जंगल की ओर जा रहे हैं | भोरमदेव के मंदिर के पीछे ‘मैकाल – विंध्याचल’ परबत श्रृखंला है और जिस जगह पर मंदिर बनाया गया है, ऐसा लगता है की सिर्फ वनवासी लोग ही उसे बना सकते थे | मंदिर ग्याहरवीं सदी में नागर शैली में बनाया गया था | इस मंदिर में 16 स्तम्भ हैं और हर एक स्तम्भ पे कलाकृतियां उकेरी गयी हैं |

और अब बात करते हैं मंदिर के बाहरी हिस्से की | नाच – गाना – सम्भोग – भक्ति, सब मुद्राएं एक साथ दिख जाती हैं | और सम्भोग की ऐसी ऐसी मुद्राएं की सोचने में ही शर्म आ जाए | ‘आदिवासी’ नाच गा कर प्रेम का उत्सव मानते दीखते हैं | वीणा सितार, और ‘लोकल’ वाद्य यन्त्र दीवारों पर उकेरे गए हैं, और सब लोग प्रेम क्रीड़ा में मग्न हैं |
ओशो कहता है की ‘सेक्स’ आपके दिमाग से ‘कण्ट्रोल – मैनिपुलेट’ करने की क्षमता को हटा देता है, न पुरुष बचता है, न स्त्री, सिर्फ प्रेम ही बचता है | वैसा ही कुछ इन चित्रों को देखकर आभास होता है | की ये लोग बस मस्त हो चुके हैं, एक के साथ एक, एक के साथ तीन, एक के ऊपर दो, दो के ऊपर एक, कुछ लोग काम-क्रीड़ा में लिप्त हैं, तो बाकी उनको देख कर ढोल नगाड़े पीट रहे हैं | लगता है की इन लोगों ने वक़्त से ही ओशो धारा में डुबकी लगा रखी थी | मंदिर की दीवार, मंदिर के अंदर – बाहर, सब ओर बस ऐसे ही चित्र बने दीखते हैं |

भोरमदेव में वैसे तो फोटो खींचने की मनाही है, जिसका मुझे कोई लॉजिकल कारण नहीं समझ आता , लेकिन फिर भी मैंने पूछ पाछ के, जोर जबरदस्ती से फोटो खींच ही लिए | कहते हैं की यहाँ कभी, जब पर्यटन इतना विकसित नहीं था, फिरंगी लोग बहुत आते थे| और वैसे भी जहाँ गरीब हो, वहाँ फिरंगी ज्यादा ही आता है, आप शायद मेरी बात न भी मानें, लेकिन मेरा मानना है की हिंदुस्तान में घूमने वाले आधे से ज्यादा फिरंगी या तो सस्ती भांग पीने आते हैं, या फिर गरीबों को ‘जीसस’ की शरण में ले जाने के लिए | और यहाँ छत्तीसगढ़ में कुछ फिरंगी तीसरी टाइप के भी थे, जिन्होंने लोकल लोगों के साथ मिलकर इन मंदिरों से मूर्तियां चुराने का धंधा शुरू कर दिया | मंदिर से कई पुरानी मूर्तियां उठाने का और उन्हें अंतराष्ट्रीय बाजारों में बेचने के किस्से आज भी छत्त्तीसगढ़ में सुने-सुनाये जाते हैं |
वहीँ भोरमदेव मंदिर के पास में एक और महल है जिसे मांडवा महल कहा जाता है, जो की वास्तव में एक शिव मंदिर है | इस मंदिर का निर्माण 1349 में हुआ था, और यह मंदिर तब बनाया गया था जब राजा रामचंद्र (अयोधया वाले राम नहीं) का विवाह अम्बिका से हुआ था | अब आप सोचिये की किसी के विवाह में एक ऐसा मंदिर बनाया गया जिसके अंदर बाहर सिर्फ काम – क्रीड़ा ही हो रही है | सोचिये आप की खुद की शादी में ऐसा कोई गिफ्ट दे दिया जाए, सबके सामने , सरेआम – सरेबाजार | क्या होगा?
तो मेरा ये मानना है की कहने को तो ये लोग आदिवासी हैं/थे, लेकिन इनका रहन सहन आज के सभ्य समाज से कहीं ज्यादा खुला, और सभ्य था | और अब जबरदस्ती इन लोगों को हम इनकी सभयता से अपनी सभ्यता में घुसा रहे हैं | खैर!!
भोरमदेव से हम लोग महानदी के दर्शन करने गए | वहाँ से शिवरीनारायण मंदिर, जहाँ राम जी ने शबरी के जूठे बेर खाये थे | आज उस गाँव का नाम ही शबरी के नाम पर रख दिया गया है | जैसे हमारे पहाड़ों में लकड़ी की मूर्तियां बनायीं जाती हैं, वहाँ छत्तीसगढ़ में पत्थर की मूर्तियां बनायीं जाती हैं, और जब तक हाथ न लगाओ तब तक मालूम नहीं पड़ता की पत्थर है या लकड़ी | ऐसी कलाकारी |


और वहाँ से आखिरी पड़ाव छत्तीसगढ़ का प्रयाग – राजिम | यहाँ तीन नदियों का संगम – त्रिवेणी संगम है जहाँ महानदी – पैरी और सोंढूर नदियां आकर मिलती हैं| और मैंने पहले भी कहा है की जहाँ सिर्फ एक नदी हो वहाँ भक्ति और जहाँ एक से ज्यादा नदी मिल जाए वहाँ तो बस भक्ति रस की बहार सी आ जाती है |
लेकिन एक पहाड़ी आदमी को बड़े दिन पहाड़ न दिखे तो मन नहीं लगता | और वही हालत अब हम दोनों की हो रही थी (मैं और मेरे ‘ट्रेक गुरु पंडित जी’) | तो सात दिन छत्तीसगढ़ में बिताने के बाद अब सवारी घर की ओर चल ही पड़ी | सात दिन हिंदुस्तान ने बहुत से भरम मिटा दिए | और एक नया मिशन भी दे दिया|
मिशन नर्मदा जी की परिक्रमा |
तीन साल – तीन महीने – तीन हफ्ते -तीन दिन |
नमामि देवी नर्मदे |
छत्तीसगढ़ में सात दिन गुजारे , बसों में, ऑटो में, पैदल, रेल यात्रा सब यात्राएं करने के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि एक घुमक्कड़ को जो सुविधा चाहिए, सस्ता रहना – सस्ता खाना – अच्छी सड़कें – सरकारी सहयोग – वो सब छत्तीसगढ़ में दिल खोल के मिलेगा | चाहे बस्तर का जंगल हो या फिर रायपुर की चमक दमक, सब जगह एकदम सीधी सड़कें और उनसे भी भले – सीधे लोग| और सबसे बढ़िया रहा दिल का ये वहम मिट गया की छत्तीसगढ़ = जंगल | नहीं, छत्तीसगढ़ में भी लड़कियां गाड़ियां चलती हैं, स्कूटी चलाती हैं, वहाँ सड़कें हैं, स्कूल हैं, अस्पताल हैं, वहाँ किसी बस कंडक्टर को मैंने कभी पान चबाते हुए लड़की छेड़ते हुए नहीं देखा, अजी छेड़ना तो दूर की बात , वहाँ कभी किसी को पलट के लड़की की तरफ देखते हुए भी मैंने किसी को नहीं देखा |
वो कहते हैं न, भ्रमण करने से भ्रम मिटता है | मेरा थोड़ा बचा है, थोड़ा मिट गया | आपका?
शशांक गोयल आपकी सहायता के लिए तहे दिल से धन्यवाद |
ye mandir bahut hi sundar hai. is madir ke bare me warnan ko padkar man khush ho gaya.
Wonderful Tarun…..luved nd envied ur writing skills…nd hindi….kya likhte ho bhai….hv read earlier as well…looks first read…fresh nd new no matter how many times u hv done that b4…. very much like Osho……..waise Neeraj kaisa hai bhai.
तो हाय सिर्फ एक चेक करने का नजरिया था की अपनी वेब साईट भी डालो कमेन्ट में हालाकि ये गैर वाजिब है ….बात करते है भारत में कामुकता से भरे मंदिर या फिर गुफाओं की हायर सेकंडरी में इतीहास के प्रोफेसर की लाइन काफी सालो तक मन में रही की ये शिल्पकला कुंठित कारीगरों की थी जो अपने राजा को ख़ुश करने के लिए गड़ी गई काफी सालो तक उसी का प्रभाव रहा अब अभी तक है जब तक साक्षात् दर्शन ना कर लू क्या पता गुरूजी गलत हो
बहुत ही अच्छी ढंग से आपने ये लेख लिखा है आपका बहुत बहुत धन्यवाद